रविवार, 13 मई 2012

लेखक संगठनों पर ओम थानवी

ओम थानवी ने जनसत्ता के 29 अप्रैल 2012 कें अंक में लेखक संगठनों पर आरोप लगाया कि वे लेखकों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगाते हैं, और लेखकों को ऐसे संगठन बनाने के लिए 'कसूरवार' ठहराया। उनके झूठे आरोपों का जवाब देते हुए मैंने जो लेख जनसत्ता को भेजा था ( जिसे जनसत्ता ने 6 मई अंक में काटकूट कर छापा भी) उसे यहां अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं:



आवाजाही के हक़ में


ओम थानवी के ‘अनंतर’ कालम ( जनसत्ता : 29 अप्रैल 012) में प्रकाशित टिप्पणी, 'आवाजाही के हक़ में यदि हिंदी लेखक समुदाय में व्याप्त संकीर्ण रुझानों को ले कर पीड़ा व्यक्त करती तो उस टिप्पणी के मूल संवेदनात्मक उद्देश्य से असहमत होने की गुंजाइश नहीं होती। यह एक पवित्र उद्देश्य ही होता कि लेखक विचारधारा के आधार पर छुआछूत न बरतें, सौ तरह के फूलों को खिलने दें, मानव इतिहास अपने सौंदर्यबोध से गुलाब और धतूरे का फ़र्क़ कर लेगा। यह तो भारत की सांस्कृतिक परंपरा है कि 'वाद से ही सत्य का जन्म होता है', इसलिए वाद से परहेज़ रखना भी स्वस्थ समाज की अवस्था नहीं माना जायेगा। दर असल, ओम थानवी की टिप्पणी में व्यक्त नज़रिया वही दोषपूर्ण नज़रिया है जो हमारे समाज के बहुत से बुद्धिजीवियों, संपादको को सामंती परंपरा से मिला है, और जिसके इस्तेमाल को आज विश्वपूंजीवाद की नयी शक्ति यानी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी, बढ़ावा दे रही है। दुर्भाग्य यह है कि हमारे बुद्धिजीवियों की चेतना से वह अहसास भी लुप्त होता जा रहा है जो निराला को बहुत पहले था कि राजे ने अपनी रखवाली कैसे की। वर्तमान विश्वमानव समाज की राजा है अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी जो दुनियाभर में यह विचार या चेतना फैला रही है कि विचारधारा और विचारधारा से लैस संगठन व्यर्थ हैं, ऐसे दर्शन और फलसफे रचने के लिए अपार धनराशि खर्च की जा रही है, उत्तरआधुनिकता के दर्शन के आविष्कार के लिए, जां फ्रांस्वा ल्योतार को जो प्रोजेक्ट दिया गया था, उसे देखने से पता लगता है कि खेल क्या है, उसने यही स्थापना दी कि सारे महान आख्यान (विचारधारात्मक दर्शन) व्यर्थ हो गये हैं, उन से सत्य नहीं जाना सकता । मध्यवर्ग को अपने भोलेपन में यह दर्शन अपना सा लगता है कि 'कोउ नृप होउ हमहिं का हानी’ 'दक्षिण हो या वाम हमें / इस सबसे क्या काम।‘ अवाम को लोकतांत्रिक आधार पर संगठित न होने देने या जो संगठित हैं उन्हें लांछित या बदनाम करके ही यानी प्रतिरोध की अवामी ताकत को 'नष्ट’ - 'भ्रष्ट’ करके ही विश्वपूंजीवाद अपना खेल हमारे जैसे देश में खेल सकता है। इजारेदार घराने अपने संगठन, जैसे फिक्की, सीआइआइ आदि या अपनी राजनीति के संगठन जैसे कांग्रेस या भाजपा आदि बना लें, तो कोई तकलीफ नहीं, मगर शोषितशासित अवाम के विभिन्न हिस्से अपने जनवादी अधिकारों को सुरक्षित रखने भर के इरादे से भी संगठन बना लें, तो नींद हराम!! हमारी सरकार भी उसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की चाकरी करके सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर कर रही है, अब हर जगह काम ठेकेदारों से करवाने और दिहाड़ी मजदूरों को कम से कम मजदूरी दे कर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने का सिलसिला है, ऐसे मजदूर संगठित कैसे होंगे, वे तो बहता पानी होते हैं, अखबारों में भी अब किसी को स्थायी नौकरी नहीं दी जाती, जिससे वे संगठित न हो सकें, बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी अपने यहां कर्मचारियों को संगठित होने का अधिकार नहीं देतीं, भारत का संविधान कुछ भी कहता हो। संगठनविरोधी इस शोषकवर्गीय मुहिम का हिस्सा बहुत से बुद्धिजीवी भी अपने भोलेपन से बने हुए हैं और उन्हें अपनी यह असलियत मालूम तक नहीं।
      हमें शायद यह लिखने की जरूरत न होती यदि ओम थानवी ने अपनी टिप्पणी में जनवादी लेखक संघ को खासकर और अन्य वामपंथी लेखक संगठनों को आमतौर पर बदनाम करने के अपने छिपे एजेंडों को अपनी टिप्पणी के केंद्रीय संवेदन के रूप में शामिल न कर लिया होता। जनवादी लेखक संघ ने ओम थानवी समेत किसी भी लेखक को कोई क्षति पहुंचायी हो, ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता, हां, अपनी सीमाओं के भीतर यदि कहीं मदद संभव हुई तो जरूर की। जनवादी लेखक संघ ने किसी भी सदस्य पर किसी तरह की आवाजाही का प्रतिबंध नहीं लगाया, एक बार तो एक लेखक सदस्य ने तो अपने ऊपर ही एक प्रतिबंध लगवाने की लिखित अभ्यर्थना की, हमारी कार्यकारिणी ने कहा, जनवादी लेखक संघ किसी भी लेखक के जनवादी अधिकार को नहीं छीन सकता, उसका तो गठन ही इस नीति के आधार पर हुआ था कि हमारे देश में जनवाद के लिए खतरा है, इसलिए जलेस का केंद्रीय सरोकार है, 'जनवाद की रक्षा और विकास’ । जलेस लेखक ही नहीं, अवाम की भी नागरिक स्वतंत्रताओं और उनके जनवादी अधिकारों के पक्ष में रहा है और रहेगा, अतीत को याद करें तो प्रेस की आजादी छीनने वाले भांति भांति के कानूनों को पारित न होने देने के लिए जो भी संगठित आंदोलन चले उन सब में जलेस की महत्वपूर्ण भागीदारी रही। ओम थानवी ने उदय प्रकाश के जनवादी लेखक संघ से 'मोहभंग के विचित्र कारण की शोधमयी पत्रकारिता करते हुए ऐसा आभास दिया जैसे जनवादी लेखक संघ 'अर्जुन सिंह की गोद में जा बैठा', और इस वजह से उदय प्रकाश जलेस से भाग गये, ऐसा विचित्र तर्क तो उदय प्रकाश भी संभवत: स्वीकार नहीं करेंगे, और जलेस से उन्होंने इस्तीफा दे दिया हो, ऐसा भी कोई सबूत नहीं है। क्या ओम थानवी संगठन का ऐसा कोई दस्तावेज या प्रस्ताव या बयान या ग्रुप फोटो या कोई अन्य प्रमाण दिखा सकते हैं, जिसमें अर्जुन सिंह की गोद में जा बैठने का तर्क प्रमाणित होता हो या यह साबित हो सके कि जनवादी लेखक संघ ने अर्जुन सिंह या किसी सरकार से कुछ मदद या धनराशि या कोई और नकदी लाभ हासिल किया हो, किसी सदस्य की किसी व्यक्तिविशेष के यहां ‘आवाजाही’ को इस तरह चित्रित करना मानों जनवादी लेखक संघ अर्जुन सिंह की गोद में जा बैठा, उसी व्यक्तिकेंद्रित अवैज्ञानिक समझ का सबूत है जिसकी गिरफ्त में बहुत से संपादक हैं जो एक व्यक्ति के चरित्र या कारनामे से झट से पूरे संगठन पर ही नहीं, 'सारे वामपंथी लेखक सगठनों’ पर अपना इल्जाम लगा देते हैं। इस तरह का नजरिया बड़े पूंजीवादी घरानों के अखबारों का ही नहीं, कई लघुपत्रिकाओं के संपादकों का भी रहता है जो आये दिन जनवादी लेखक संघ को अकारण ही बदनाम करने से नहीं चूकते। भइए, ऐसा क्या बिगाड़ा है जलेस ने आपका? 
         जनवादी लेखक संघ जम्हूरियतपसंद संगठन होने की वजह से आलोचना पसंद करता है, आलोचनात्मक विवेक को बढ़ावा देता है, और आलोचना करने का अधिकार भी रखता है। जो लेखक हमारे सांगठनिक और आयोजनात्मक कामों से जुड़े रहे हैं, वे इस बात के साक्षी हैं कि हम कड़वी से कड़वी आलोचना के विषपायी हैं, लेकिन आलोचना का आधार जरूर होना चाहिए, आजादी तो हम निराधार आलोचना को भी देते हैं, वह तो अभिव्यक्ति की आजादी है, जिसके लिए हिंदी-उर्दू के लेखकों ने मिल कर इस संगठन की इतिहास के एक ऐसे दौर में रचना की जब लेखक का लिखने का ही अधिकार खतरे में था, पत्रकारों का सत्यशोधक अखबारनबीसी का अधिकार भी खतरे में था। यह देख कर दुखभरा आश्चर्य होता है कि ओम थानवी जैसा संपादक अपनी टिप्पणी में संगठन को 'पार्टी का पोशीदा अखाड़ा’ कह कर उसके प्रति अपनी हिकारत का इज़हार करता है। क्या वे इतने अबोध हैं कि यह भी नहीं जानते कि कोई राजनीतिक पार्टी या अवाम के विभिन्न हिस्सों के संगठन सामाजिक विकास प्रक्रिया के दौरान ही वजूद में आते हैं, और बहुत से विलीन भी हो जाते हैं, सम्राट् अशोक के जमाने में कांग्रेस पार्टी का गठन क्यों नहीं हो गया था, अहिंसा का नारा तो तभी समाज में फैल चुका था, उद्योगपतियों के फेडरेशन या आर एस एस जैसे संगठन अकबर के जमाने में क्यों नहीं बन गये थे?
          विश्वभर में जहां जहां पूंजीवाद का विकास हुआ, वहां पूंजीवादी पार्टियां और मजदूरवर्ग की पार्टियां भी अस्तित्व में आयीं, भारत में भी उन्हीं मूलभूत सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में होने वाली हलचल की वजह से विभिन्न संगठन वजूद मे आये, यदि संगठन न होते तो क्या भारत आजादी हासिल कर लेता? क्या बिना संगठनों के भविष्य में भी होने वाले सामाजिक परिवर्तन हो जायेंगे?  लेखकों के संगठित होने को इस तरह की हिकारत से देखना उसी नजरिये का परिचायक है जो सुनहरे भविष्य को किसी अवतारी पुरुष के जन्म में देखता है, गीता के 'यदा यदा हि’ वाले फलसफे या नीत्शे के महामानव में। ओम थानवी की लंबी टिप्पणी में एक पूरा पैरा सगठनों के बनने देने के लिए विचारवान लेखकों को 'कसूरवार' ठहराने पर केंद्रित किया गया है। वे लिखते हैं, 'प्रगति या जनगण की बात करने वाले अपनी ही विचारधारा के घेरे में गोलबंद होने लगे, इसके लिए खुद 'विचारवान लेखक कम कसूरवार नहीं है’। ओम थानवी जैसे 'विचारवान’ कम से कम अपराधी होने से तो बचे हैं, बाकी सारे तो अपराधी हैं, भई वाह! वे नहीं जानते कि मुक्तिबोध के 'अंधेरे में’ कविता  के वाचक ने ऐसे ही पत्रकारों को उस जुलूस में गोलबंद देखा था जो मध्यवर्ग को संगठित सर्वहारावर्ग से अलग रहने की सलाह देते थे, यदि ओम थानवी यह सोचते हैं कि वे गोलबंद नहीं हैं तो यह उनकी मिथ्याचेतना है, वर्गविभाजित समाज में कोई व्यक्ति खुद को सर्वस्वतंत्र मानकर और विचारवान भी मान कर अपना पक्ष या अपना 'अखाड़ा’ छिपाये रहे यह संभव नहीं। इसी मिथ्या चेतना के चलते  उन्हें लेखक संगठनों के बनने और टूटने की प्रक्रिया का वैज्ञानिक आधार नहीं दिखायी देता, वे बस एक सरलीकरण से काम चला लेते हैं, कि 'पार्टी टूटी तो संघ के लेखक भी टूट गये।‘ पार्टी तो 1964 में टूटी थी, जबकि जनवादी लेखक संघ 1982 में बना, यही नहीं सीपीआइ तो 1920 में बनी, प्रलेस 1936 में बना, नक्सलवादी तो 1970 से पहले ही अलग गुटों में विभाजित हो गये थे, उनके समानांतर लेखकसंगठन तो वजूद में नही आये। ओम थानवी इन सारे पेचीदा पचड़ों में जाने वाले 'विचारवान’ संपादक नहीं हैं, बस जो हांक लग गयी सो उन्होंने भी लगा दी, उन्हें तो लेखकों को अपराधी ठहरा कर गालियां देनी थीं सो दे लीं, दिल दिमाग ठंडा कर लिया। उन्होंने लिखा, 'इन लेखक संघों ने अक्सर अपने मत के लेखकों को ऊंचा उठाने की कोशिश की है और दूसरों को गिराने की। ....इसी संकीर्णता की ताजा परिणति यह है कि कौन लेखक कहां जाये, कहां बैठे, क्या कहे, क्या सुने, इसका निर्णय भी अब लेखक संघ या सहमत विचारों वाले दूसरे लेखक करने लगे हैं’। यह कैसी खोजी पत्रकारिता है जो आधारहीन तर्को से लेखक संघों को लांछित और इसलिए अवांछित करार दे रही है। 'ऊंचा उठाने’ या नीचे गिराने जैसे कामों के आरोप संगठनों पर लगाना आधारहीन है, हां लेखक संघ के सदस्य लेखकों को भी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है कि वे अपने आलोचनात्मक विवेक से किसी लेखक का कैसा आकलन करते हैं, संघों ने उन्हें कोई निर्देश नहीं दिये। जनवादी लेखक संघ का घोषणापत्र इस तरह की आलोचनात्मक बहुलता का आदर करता है, किसी तरह की संकीर्णता को प्रश्रय देने का नहीं।  स्वस्थ विवाद प्रमाणों पर आधारित होता है, उससे हम सब की चेतना का विकास होता है, आधारहीन कुतर्क पर आधारित आरोप लेखक की अपनी ही भद्द पिटवाते हैं, ऐसे में टी एस एलियट की कविता, 'द वेस्टलैंड’ जिसमें यूरोप के सांस्कृतिक पतन का रुदन है की अंतिम पंक्तियों का जाप ही किया जा सकता है: 'ओम शांति: ओम शांति: ओम शांति:’।

पुनश्च:

   आज 13 मई के जनसत्ता में मेरी टिप्पणी पर अर्चना वर्मा का कुछ गोलमोल सा हस्तक्षेप छपा है। वे शायद ओम थानवी के विचारों से सहमत हैं, लेकिन वे भी कोई ऐसा प्रमाण उद्धृत नहीं कर पातीं जिससे ओम थानवी द्वारा लेखक संगठनों पर और खासकर जनवादी लेखक संघ पर लगाये बेबुनियाद आरोपों को सही साबित कर सकें, या मेरे लेख की किसी स्थापना को ग़लत साबित कर सकें।